देहरादून। उमेश शर्मा काऊ के मजबूत किले रायपुर में इस बार हीरा सिंह बिष्ट की धमक साफ सुनाई दे रही है। काऊ ने 2017 में मोदी लहर में रायपुर सीट पर 36 हजार से ज्यादा वोटों से जीत दर्ज की थी, यह प्रदेश में अब तक की सबसे बड़ी जीत के तौर पर दर्ज हुई। तब से माने जाने लगा कि रायपुर में काऊ को हराना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। लेकिन इन पांच साल में ही राजनैतिक फिजा इस तरह से बदल गई कि काऊ अपने ही किले में हीरा सिंह बिष्ट की चुनावी बिसात में कांटे के मुकाबले में फंस गए हैं।
राजनीति के मजबूत हीरा है बिष्ट
पहले बात करते हैं हीरा सिंह बिष्ट की रायपुर में एंट्री की। वह राज्य के सबसे पुराने राजनीतिक शख्सियतों में हैं। कांग्रेस का बड़ा चेहरे हैं। उन्होंने 1977 में पहला इलेक्शन लोकसभा का लड़ा लेकिन त्रेपन सिंह नेगी के हाथों हार गए। 1985 हरबंश कपूर को हराकर पहली बार यूपी की विधानसभा में पहुंचे। उन्होंने कुल 10 चुनाव लड़े और तीन में जीत दर्ज की। 2014 में डोईवाला विधानसभा उप चुनाव लड़ा और त्रिवेंद्र सिंह रावत को हराकर विधानसभा पहुंचे।
2017 में डोईवाला से चुनाव हार गए और इस बार रायपुर के रण में उतरे हैं।
कांग्रेस ने रायपुर से जब उन्हें टिकट दिया, तो राजनैतिक जानकार मान रहे थे कि यह हीरा सिंह की सियासत का अंत है। क्योंकि काऊ के मजबूत किले में उन्हें कमजोर आंका जा रहा था। लेकिन टिकट मिलने के बाद से अब तक चुनावी रणनीति में हीरा सिंह ने न सिर्फ खुद को मुकाबले में ला दिया है, बल्कि काऊ को भी कांटे की टक्कर में फंसा दिया है।
जमीनी नेता काऊ का है दबदबा
उमेश शर्मा काऊ 2012 में कांग्रेस के टिकट से रायपुर से विधानसभा पहुंचे थे, 2016 में वह कांग्रेस से बगावत कर अपने साथियों के साथ भाजपा में आ गए थे। उमेश शर्मा की कांग्रेस में रहते सीएम हरीश रावत से नहीं बनी। वह भाजपा में आए तो यहां उनके धुर राजनैतिक विरोधी त्रिवेंद्र 2017 में सीएम बन गए और फिर भाजपा में भी उनकी सीएम से नहीं बनी। वह लगातार राजनैतिक विरोधियों के निशाने पर तो रहे, लेकिन जमीन पर उनकी पकड़ मजबूत होती चली गई। निगम चुनाव में मेयर सुनील उनियाल गामा पूरे देहरादून में रायपुर विधानसभा क्षेत्र से ही सर्वाधिक वोटों से जीतकर आए थे। इन सबके बीच काऊ और त्रिवेंद्र के बीच नहीं बनी। काऊ के टिकट कटने की चर्चाएं भाजपा में तब आम थी, लेकिन इस बीच त्रिवेंद्र पद से हट गए और काऊ की राह भी साफ हो गई।
त्रिवेंद्र फैक्टर में फंसा पूरा चुनाव
भाजपा का त्रिवेंद्र फैक्टर अभी भी उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है। यही वजह है कि भाजपा का एक गुट उनके खिलाफ लगातार सक्रिय है। इधर, हीरा सिंह को पार्टी के हर नेता का समर्थन मिल रहा है। यहां कांग्रेस से भविष्य में टिकट के कई दावेदार हैं, जो हीरा के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। उन्हें पता है कि 77 साल के हीरा के लिए यह आखिरी चुनाव है, इसलिए राजनैतिक जमीन बचाने के लिए हीरा को जीत की दहलीज पर ले जाना जरूरी है। ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस के लिए काऊ का किला आगे भी अभेद किले के तौर पर ही रहेगा।